जब भी बात मूर्ति पूजा की होती है, लोग बिना जानें या तो उसे सही कह देते है या गलत कह देते है, या फिर इतने बेतुके तथ्य देते है की बुद्धि को सही नहीं लगते। मूर्ति पूजा के बारे में कुछ बातें समझिए भारत में मूर्ति पूजा वेद काल (वैदिक काल) से हो रही है।
क्या इंसानों द्वारा बनाई मूर्तियों में भगवान है?
श्रीकृष्ण के समय में नाग, यक्ष, इन्द्र की पूजा की जाती थी। जब वैदिक काल खत्म एकता की ओर होने लगा तब मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने लगा। वैदिक काल में जब लोग साधना (ध्यान) करते थे उस समय ईश्वर की शक्ति से संपर्क बनाना आसानथा क्योंकि उस समय वैसा वातावरण था।
लोग आँखें बंद करके ध्यान करते थे और ईश्वर की शक्ति से जुड़ जाते । समय बदला और ईश्वरीय शक्ति से संपर्क करना मुश्किल होता गया। तब उस समय के ज्ञानियों ने सोचा की समय बदल रहा है अब लोगों के लिए कोई ऐसा मार्ग बनाया जाए जो आसान हो। तब मूर्ति पूजा, मूर्ति ध्यान एक का प्रचलन बढ़ा । ज्ञानियों ने इसमें 3 स्टेप बताये।
पहला स्टेप -मूर्ति पूजा, मूर्ति ध्यान एक का प्रचलन बढ़ा । ज्ञानियों ने इसमें 3 स्टेप बताये।हला स्टेप -मूर्ति के सामने से बैठो, उसे ध्यान से खुली आँखों से देखो। मूर्ति के एक एक स्वरूप को अपने अंदर उतर जाने दो।
दूसरा स्टेप-आँखें बंद करो अब अपने अंदर महसूस करो की जो मूर्ति का स्वरूप तुमने बाहर देखा है वही स्वरूप तुम्हें अंदर भी दिखाई देने लगे। तीसरा स्टेप (फाइनल स्टेप) – समाधि । समाधि से मतलब अब पहले और दूसरे दोनों स्टेप से ऊपर उठने का समय है। और जैसे ही व्यक्ति पहले और दूसरे स्टेप से ऊपर उठता था उसे अपने अंदर निराकार ब्रम्ह (बिना आकर वाले ईश्वर) के दर्शन हो जाते थे।
यहाँ तक सब सही चल रहा था फिर एंट्री हुई भगवान बुद्ध की जिन्होंने अपना मार्ग बताया- बुद्ध के मार्ग ने करोड़ों लोगों को समाधि तक पहुँचाया (तीसरे स्टेप) तक। अब मजे की बात ये है चाहे ऋषियों का मार्ग हो, चाहे भगवान बुद्ध का मार्ग हो। दोनों के मार्ग में कितना भी मदभेद हो। दोनों के बताए मार्ग तीसरे की ओष स्टेप (समाधि) तक ले कर जाते है। जैन धर्म में भी सविकल्प और निर्विकल्प समाधि के नाम से साधना की जाती है। समाधि तक जाने के बाद लोग अपना अपना अनुभव अलग अलग नामों से बताते है।
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बुद्ध, समाधि के अपने अनुभव को बताते हुए कहते – ईश्वर नहीं है, आत्मा भी नहीं है। महावीर कहते है- आत्मा है, ईश्वर नहीं है। हिंदू कहते है- आत्मा भी है और परमात्मा भी है। कुल मिला कर सभी का अंतिम लक्ष्य अपने अपने मार्ग से आपको समाधि तक पहुँचाना है और आपके अंदर मौजूद उस परम तत्व से आपका मिलन करवाना है। बुद्ध ने कहा था-मेरी मूर्ति मत बनाना मेरी पूजा मत करना। लेकीन किसी ने बुद्ध की बात नहीं सुनी। आज विश्व में सबसे ज्यादा मूर्ति बुद्ध की ही है।
लोग बुद्ध की मूर्ति के सामने बैठ कर उसी तरह ध्यान करते है जैसे मंदिर में बैठ कर कोई ईश्वर की मूर्ति के आगे| मैं भगवान कृष्ण, बुद्ध, राम, महावीर के मार्ग को आपस मे मिला कर खिचड़ी नहीं बनाना चाहता। सभी का मार्ग आपका कल्याण करेगा। अगर श्रीराम कमल के फूल है, तो श्रीकृष्ण गुलाब के फूल है। अगर भगवान बुद्ध चमेली के फूल है, तो महावीर चम्पा के फूल है। हर किसी का अपना गुण और मार्ग है।
आज मूर्ति पूजा के नाम पर लोग सिर्फ पहले स्टेप को ही फॉलो करते है। दूसरे और तीसरे स्टेप गायब हो चुके है। शायद इसलिए अभी के समय को कलयुग कहा गया है। तो अब बात आती है इंसानों द्वारा बनाई मूर्ति में भगवान कैसे हो सकते – मूर्ति सिर्फ प्रतीक के रूप में पूजी जाती है? जवाब- एकी है ताकि एक साधक पहले, दूसरे स्टेप को पूरा करते हुए समाधि (तीसरे स्टेप) तक पहुँच कर बिना आकार वाले ईश्वर को पा सके। इससे साफ होताहै की मूर्ति में भी भगवान छिपे है क्योंकि मूर्ति एक सीढ़ी है जो हमें अंत में ईश्वर के दर्शन करवाती है।
रामकृष्ण परमहँस भी इन्हीं तीनों स्टेप द्वारा माँ काली के दर्शन कर पाए और समाधि तक पहुँचे, दोस्तों आपने ये पोस्ट पढ़ी तो आपको ये 2 काम करने होंगे।
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